कर्म का दर्शन और धर्म का मार्ग


श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश, विशेषकर कर्म और धर्म पर उसके सिद्धांतएक सक्रिय सार्थक जीवन को समझने की धुरी हैं।



अनासक्त कर्म क्या हैं?

इस समझ का मूल गीता में खूबसूरती से व्यक्त किया गया है:

"जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को ईश्वर को अर्पित करता है और आसक्ति का त्याग कर देता है, वह पाप से वैसे ही अलिप्त रहता है जैसे कमल का पत्ता जल से अलिप्त रहता है। योगी अपने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों से भी आसक्ति त्याग कर आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं।" (श्रीमद्भगवद्गीता 4/10-11)

यह ज्ञान इस एक मौलिक सत्य को उजागर करता है, कि जब हम कार्य करते हैं, अपने प्रयासों को एक उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित करते हैं; और परिणामों के प्रति अपने मोह को छोड़ देते हैं, तो वे कर्म हमें बांधते नहीं हैं। ठीक उस कमल-पत्र की तरह, जो पानी में रहकर भी सूखा रहता है, हम जीवन में पूरी तरह से संलग्न हो सकते हैं, फिर भी उसकी जटिलताओं से कलुषित और कलंकित नहीं होते।

यह तथ्य किसी प्रकार की निष्क्रियता के बारे में नहीं है; यह हमारी आंतरिक स्थिति में बदलाव के बारे में है, जहाँ हम अपने प्रयास और इरादे की शुद्धता पर ध्यान केंद्रित करते हैं, न कि केवल विशिष्ट परिणामों की इच्छा से प्रेरित होते हैं। यह अनासक्ति एक आंतरिक स्वतंत्रता लाती है, और सुनिश्चित करती है कि हमारी मन की शांति बाहरी उपलब्धियों पर निर्भर न हो।


कर्म की जटिलता को समझना: अर्जुन की दुविधा क्या हमारी अपनी नहीं?

कर्म का दर्शन अत्यंत जटिल है, और धर्म का मार्ग गहन रूप से चुनौतीपूर्ण है। इस संसार में प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों से बंधा हुआ है। फिर भी, हम अक्सर यह समझने में संघर्ष करते हैं कि कर्म "अच्छे" या "बुरे" कैसे हो जाते हैं। जो एक व्यक्ति के लिए लाभदायक है, वही दूसरे के लिए हानिकारक कैसे हो सकता है? पाप और पुण्य वास्तव में क्या हैं? कर्मों में आसक्ति और अनासक्ति का क्या अर्थ है? कीचड़ में कमल का अलिप्त रहना क्या दर्शाता है? व्यक्ति को उसके कर्मों का फल कैसे मिलता है, और इन फलों को अक्सर "तफल" (त-फल, जिसे जटिल फल भी कहा जाता है, एक ही फूल से विकसित होने वाले कई फलों का समूह होता है, जो एक साथ जुड़कर एक फल का रूप ले लेते हैं। एक प्रकार से जटिल परिणाम) क्यों कहा जाता है? "श्रेय" (जो अंततः कल्याणकारी है) और "प्रेय" (जो तुरंत सुखद है) में क्या अंतर है? क्या हम अपने कर्मों से अपना भाग्य गढ़ते हैं, या हमारे कर्म केवल एक पूर्वनिर्धारित नियति की अभिव्यक्तियाँ हैं? इन सभी प्रश्नों के उत्तर अंततः धर्म से ही मिलते हैं।

ये वे शाश्वत प्रश्न हैं जो मानव-मन को अक्सर परेशान करते हैं। अर्जुन ने, कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अपनी ही नैतिक दुविधा का सामना करते हुए, भगवान कृष्ण से ऐसे ही प्रश्न पूछे थे:

"कायरता के दोष से पीड़ित और धर्म के संबंध में मोहित-चित मैं आपसे अपने कल्याण का मार्ग जानना चाहता हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में आया हूँ; कृपया मुझे शिक्षा दें।" (श्रीमद्भगवद्गीता 2/7)

यहाँ, यह एक महत्वपूर्ण बिंदु को रेखांकित करता है: धर्म और कर्म को समझने की खोज केवल एक अकादमिक कार्य नहीं है; यह एक गहरी व्यक्तिगत और अक्सर पीड़ादायक यात्रा है। इसलिए इनके उत्तर शायद ही कभी कठोर नियमों में मिलते हैं, बल्कि आत्मनिरीक्षण, आत्म-जागरूकता और जीवन की अंतर्निहित जटिलताओं का सामना करने की इच्छा के माध्यम से उभरते हैं। यह विचार कि "जो एक के लिए अच्छा है, वह दूसरे के लिए बुरा हो सकता है" नैतिकता की स्थितिजन्य और व्यक्तिपरक प्रकृति पर जोर देता है, और हमें सही और गलत की सरलीकृत धारणाओं से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।


धर्म का व्यक्तिगत और सार्वभौमिक स्वरूप

ये प्रश्न केवल अर्जुन के नहीं हैं; ये हमारे भी हैं। हम अक्सर खुद को अर्जुन जैसी "धर्मसंकट" की स्थितियों में फंसा हुआ पाते हैं। जब हम कृष्ण की गीता को पढ़ते हैं, तो कभी-कभी उलझन और बढ़ सकती है। मैंने अक्सर लोगों को यह कहते सुना है, "गीता में यह भी लिखा है, और वह भी," --उनके अनुसार इसके उपदेश विरोधाभासी लगते हैं। ऐसे लोगों से मैं पूछता हूँ: "आप स्वयं को अर्जुन की स्थितियों में कितनी गहराई से पाते हैं? क्या आप वास्तव में अपने कर्म और अपने धर्म के 'प्रश्न' को जीवन-मृत्यु का प्रश्न मानते हैं, जैसा अर्जुन ने किया था?"

वास्तव में, धर्म एक गहन व्यक्तिगत स्तर पर संचालित होता है। हम में से प्रत्येक का धर्म अलग हो सकता है, और हम स्वयं उसकी प्राथमिकताओं का निर्धारण करते हैं। हालाँकि, अर्जुन केवल एक व्यक्ति के रूप में गीता का ज्ञान प्राप्त नहीं कर रहा था; वह संसार में एक डगमगाते और प्रश्न पूछने वाले जिज्ञासु का प्रतीक था। वह कभी कुछ पूछता है, तो कभी कुछ, तर्क भी करता है। इसलिए, भगवान ने उसे जो उपदेश दिया, वह हर प्राणी के हित में होते हुए भी किसी एक के लिए नहीं था; वह सबके लिए है। इस दृष्टिकोण से इसे समझना चुनौतीपूर्ण हो सकता है:

"कोई इस तत्व को आश्चर्य की भांति देखता है, कोई आश्चर्य की भांति इसका वर्णन करता है, कोई आश्चर्य की भांति इसे सुनता है, और कोई सुनकर भी इसे नहीं जानता।" (श्रीमद्भगवद्गीता 2/26)

यह श्लोक आध्यात्मिक सत्य की मायावी प्रकृति को पूरी तरह से दर्शाता है। यह बताता है कि केवल बौद्धिक समझ या यहाँ तक कि देखने भर से पर्याप्त नहीं है; एक गहरा, अनुभवात्मक बोध आवश्यक है। गीता को समझने के लिए अद्वैत (गैर-द्वैत) और समदृष्टि (समता) की भावना भीतर विकसित करनी होगी। संतों ने भी कहा है: "हर में हर को देख रे प्राणी, हर में हर को देख।"


विचार से कर्म की ओर: विवेक की अनिवार्यता

ऐसा नहीं है कि हमें इन गहन प्रश्नों के बारे में कोई जानकारी या विचार नहीं है। लेकिन हमें उन पर पूर्ण विश्वास करने या उन्हें परखने की क्षमता भी अपने भीतर विकसित करनी होती है। इस क्षमता के अभाव में, हमारे अधिकांश विचार क्षणिक और अस्थायी होते हैं। हम केवल "विचारशील" ही रह जाते हैं, वास्तविक रूप से विवेकवान नहीं बन पाते। किसी विचार को क्रियान्वित कर पाना, उसे विवेक के साथ आचरण में ढाल लेना ही उसकी सार्थकता है। धर्म-कर्म के विचार में केवल "रुचि" होना ही पर्याप्त नहीं है।


गीता का समग्र दर्शन: कथित विरोधाभासों से परे...

यह सच है कि हम जैसे अज्ञानियों को गीता में विरोधाभास प्रतीत होता है, लेकिन वहाँ किसी प्रकार का आंतरिक विरोधाभास नहीं है, न हो सकता है। गीता अपने इन प्रतीत होते विरोधाभासों से ही एक समग्र दर्शन के रूप में सामने आती है। वास्तव में, गीता में दृष्टिगत विरोधाभास हमारी अज्ञानता के कारण ही नज़र आते हैं। गीता तो ज्ञान, कर्म और भक्ति का एक समन्वित योग है – एक सदा बहने वाली त्रिवेणी। गीता हमारे धर्ममय जीवन का प्रस्थान बिंदु है; यह स्वयं वेदांत है। इसीलिए यह सबके लिए है, किसी एक के लिए नहीं।


आध्यात्मिकता का आकर्षण: आंतरिक शून्य को भरना

हम में से अधिकांश लोग धर्म और अध्यात्म के प्रति कोई न कोई दृष्टिकोण अवश्य रखते हैं। हम इसे समझना चाहते हैं, और हम सभी के पास धर्म-सम्मत ज्ञान या इतनी जानकारी होती है कि हम दूसरों के साथ बांट सकें और उन्हें भी प्रेरित कर सकें। समझे या न समझे, हम इससे जुड़ाव भी महसूस करते हैं। ऐसा क्यों है कि न केवल भारत जैसे आध्यात्मिक कहे जाने वाले देश में, बल्कि दुनिया के उन्नत भौतिकवादी देशों में भी लोग स्वयं को भौतिकवादी कहलाने की अपेक्षा धार्मिक और आध्यात्मिक कहलाना अधिक पसंद करते हैं! जाने-अनजाने ही सही, धर्म, और उसके अगले चरण में अध्यात्म, हम सबके जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा है। हम इसे उच्चतर मानते हैं।

लेकिन सच यह भी है कि हममे से अधिकांशतः भौतिक जीवन के चक्रों में ही घूमते रहते हैं। हम उसी का चिंतन करते हैं और उसी की अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं। धर्म हमें भीतर से आंदोलित तभी करता है जब हम दुख या संकट में होते हैं। ऐसे में धर्म हमें भौतिक उन्नति के बीच दो पल ठहरने के लिए बाध्य करता है, और जैसे यह सवाल सामने खड़ा करता है कि 'क्या यही सब हमारा लक्ष्य है?' या 'हमारा वास्तविक धर्म क्या है?' इसी विचार के साथ हम अध्यात्म जगत में प्रवेश करते हैं।

वास्तव में, भौतिकवाद से उत्पन्न किसी खालीपन को भरने के लिए, किसी शुष्कता को दूर करने के लिए ही हम धार्मिक या आध्यात्मिक कहलाना पसंद करते हैं। यह धर्म की एक सहज प्रक्रिया है। लेकिन यह प्रक्रिया केवल 'आध्यात्मिक' कहलाने की चाह तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि जो महापुरुष वास्तव में संतत्व को प्राप्त हैं, जो भौतिकता से कोसों दूर हैं, वे भी निरर्थकता की इस लंबी सुरंग से गुजर कर वहाँ पहुँचते हैं। हाँ, इधर आध्यात्मिक 'कहलाने' भर का रुझान खासा बढ़ रहा है।


'आध्यात्मिक ब्रांडिंग' के खतरे और सच्चा एकीकरण

जैसे-जैसे मनुष्य के जीवन में भौतिक उन्नति अपने चरम की ओर बढ़ती है, वह आध्यात्मिकता का दबाव महसूस करता है, एक विकल्प के रूप में। इसके दो कारण हैं - पहला, आप भौतिकता की व्यर्थता से परिचित हो रहे हैं। दूसरा, आप भौतिकता के उस शिखर को छू चुके हैं, जिसके बाद संतोष और धन्यता का भाव पैदा होता है। मैंने एक धनकुबेर को कहते सुना है कि 'मेरे पिता ने धनिकों के संसार में शीर्ष पर पहुँचने के बाद यह अनुभव किया कि अब हमें परम ज्ञान का दोहन करना चाहिए।' ऐसे में हमारी अज्ञानता आड़े आती है। हमें यह पता नहीं होता कि आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश का सबसे आसान मार्ग यह है; कि वहाँ कुछ करना नहीं होता - न लाल-पीले वस्त्र पहनने हैं, न संसार को त्याग देना है, न मंदिर-मस्जिद के फेरे लेने हैं। बस इस 'करते जाने के भाव को छोड़ना है'

इसके विपरीत, आध्यात्मिक जीवन में भी हम भौतिक जीवन के अनुभवों के आधार पर ही गति करना चाहते हैं। कुछ समय तक हम वहाँ भी लाभ-हानि के भाव से भरे रहते हैं। उत्थान का प्रयास करना हमारी आधुनिक जीवनशैली से जुड़ रहा है, साथ ही अध्यात्म भी। किसी आध्यात्मिक गुरु का शिष्य कहलाना और उनके आदेशानुसार अपने अध्यात्म को हमने अपने भौतिक जीवन का एक प्रदर्शनीय पक्ष बना लिया है। यह थोड़ी उल्टी बात है। होना यह चाहिए कि हमारा भौतिक जीवन हमारे आध्यात्मिक जीवन का विस्तार नज़र आए। वहाँ कोई कृत्रिमता न हो, छद्मता न हो। यह थोड़ा कठिन अवश्य है। आध्यात्मिक मनुष्य के लिए तो और भी कठिन है, क्योंकि वहाँ भौतिक जीवन के प्रति वैराग्य ही व्यक्ति को आध्यात्मिक बना रहा है। फिर उसी भौतिक जीवन को जगत के प्रपंचों के बीच व्यावहारिक रूप से प्रदर्शित करना कठिन तो होगा ही। उसकी आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी।

लेकिन आध्यात्मिक व्यक्ति को भी आखिर इस संसार में ही रहना है। उसका भी संसार में कोई व्यवहार तो शेष होता ही है। इसी द्वंद्व को समझने और साधने की शक्ति हमें अध्यात्म से मिलती है, और वही समझ हमें आध्यात्मिक बनाती है। तब वही कर्म हमारे लिए शेष रह जाता है, जिसे हम कीचड़ में खिले कमल की तरह निर्लिप्त होकर करते हैं


अनासक्ति के भय पर विजय: वेदांत का ज्ञान

मैंने यह भी अनुभव किया है कि लोग धार्मिक या आध्यात्मिक कहलाना या दिखना तो पसंद करते हैं, लेकिन वास्तव में आध्यात्मिक होने से कहीं डरते भी हैं। इससे उन्हें सांसारिकता के व्यवहारों से कट जाने का भय सताता है। यह सांसारिकता अस्तित्वगत होती है; यानी, अगर आप संसार में हैं तो आप 'सांसारी' ही होंगे। यदि आप सांसारी न होंगे, तो आपका अस्तित्व किस रूप में शेष होगा?

 

वेदांत ही एकमात्र ऐसा दर्शन है जो इस मार्ग को अपने अनूठे तरीके से प्रशस्त करता है। इस बात को आज विश्व के विभिन्न विचारकों और दार्शनिकों ने सहज स्वीकार किया है। यही वह दर्शन है जो बताता है कि कैसे हम 'रिंदों में रिंद भी रहें और दामन भी तर न हो।' इसका अर्थ वही अनासक्त निर्लिप्तता है।

आइए, हम धर्म के साथ कर्म के मार्ग पर अग्रसर हों, और अपने जीवन को उन्नत और सुखमय बनाएँ।


@विजय विजन 

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